शनिवार, 23 मार्च 2013

डायरी... आखिरी पन्ना.

मिट्टी,
और
पानी, और
थोडा सा लाल रंग
का घोल बना कर
डाल गया था कोई आसमान पर.


वो
अपने कदमो के निशान
छोड़ गया था
उस सड़क पर
जो
इक ऊँची-नीची रेखा की तरह
क्षितिज को क्षितिज
से जोड़ती प्रतीत होती थी


इस पर चलने वाले
वो दोनों
शाश्वत प्रेमी थे.
क्षितिज से निकले थे
अनंत की यात्रा पे .


उस यात्रा में कई पड़ाव रहे -
विश्राम के लिए.
प्रेम के लिये.
गंगा,
अमृत,
और
विष भी बहा.
वो गंगारोहण और अमृतमंथन
के संगम का प्रतीक थे.


यात्रा अधूरी रही -
हर यात्रा की तरह.
वो यात्री
प्रेमी रहेंगे
सहयात्री नहीं.

यात्रा का एक मूल्य होता है
जो यात्री बिछुड़ कर चुकाते है.


....'अब मै आकाश को पुकारना चाहता हूँ'

शनिवार, 16 मार्च 2013

कुछ .. डायरी से ..


नदियाँ  समंदर की तिश्नगी को तृप्त करने की कोशिश करती हैं या धरती के उस हिस्से की प्यास को जिसे समंदर भी नहीं बुझा पाया ?
कोई नहीं जानता.
नदी प्रश्न और उत्तर की ज़बान नही बोलती. वो केवल आमंत्रण की भाषा जानती है.
पानी का आमंत्रण अमर होता है. आमंत्रित के स्वीकार/अस्वीकार से स्वतंत्र. स्वायत्त, शाश्वत और अमर.
प्रेम पानी सा होता है. समुन्द्र के पानी सा. पानी जिसमे उतर आता है नीला आसमान. और जिसमे समाता सा लगता है क्षितिज.
वैसे हमारा क्षितिज किसी और का आसमान होता है.
क्षितिज सौंदर्य की सबसे मुखर उपस्तिथियो और सटीक अभिव्यक्तियों  में से एक है (- कविता, चाँद,  मुस्कान और मटर के दाने के जैसे ).
सौंदर्य अनैतिक होने के लिए अभिशप्त है.
नैतिक समाज में सौंदर्य अप्राप्त्य रहेगा.
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मैंने कभी कुछ नहीं रचा. या जो रचा वो इतना मूल्यहीन है की उसे डिसओन करना चाहता हूँ. हाँ - थोडा कुछ है जो समेटा है या समेटने की कोशिश की है. वही मूल्यवान है. यह कुछ ख़ुशी भी देता है और इक टीस भी - टीस - कि कितना कुछ था जो समेट न सका... सहेज ना पाया - खो दिया. शायद हमेशा के लिए.

इस टीस और इतिहास से मेरे प्रेम में कुछ गहरा सम्बन्ध है.