मंगलवार, 28 मई 2013

खण्डहर- भाग २




हर गुज़रती रात के साथ
और स्याह होती
इकट्ठी नींदों की रोशनाई में
अतीत की कलम डुबोकर
ज़िन्दगी की स्लेट पर
उसने
लिखनी चाही इक कविता.

लेकिन स्याही में घुली
टीसों की कसक
कलम में अटकी एक पुकार
और
स्लेट के सतही मौन
के द्वंद से
जो उभरा अन्ततः
वो था एक दु :स्वप्न सरीखा.

स्वप्न देखने की आदि 
उन आँखों का धैर्य 
बह निकला पूरे वेग से 

इक बूँद समंदर की सुनामी
बहा ले गयी बहुत कुछ
अपने प्रवाह में
और
जो बचा
वो था
वर्तमान का
एक यतीम खण्डहर.

इक भग्नावशेष -
-अनाथ-
जिसका कोई इतिहास न था
और
इतना स्याह
जिस पर
किसी भविष्य, ईश्वर, प्रेम
या
कविता
के हस्ताक्षर की गुंजाईश न थी.

'मै जिधर खड़ा हु, उधर रात का मुहाना है.'


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