मंगलवार, 12 नवंबर 2013

इन्हीं सर्दियों में









इन सर्दियों मेरे पास जलाने के लिए
अलाव बहुत कम हैं
जमा हो गयी हैं ढेर सारी राख
इतनी सर्दियों से गुज़रते-निपटते


याद आते हैं मुझे सर्दियों में नंगे घूमते फ़कीर
लपेटे हुए भभूत
अपने ठिठुरते जिस्म पर
जो कांपना भूल चुका हैं


क्या हुआ ऐसा जो उस जिस्म ने चुना
राख का लबादा
बचने के लिए
ज़िन्दगी की सर्दियों से


इतिहास के विस्मृत अध्यायों से गुज़रता
उसके भग्नावेश सरीखे अस्तित्व पर
मै ढूँढता हूँ घर की दीवार फांदते हुए लगे किसी चोट के निशाँ को
-शायद सालो से जोट रहा हो मरहम की राह
माथे पर स्मृतियों की लकीरों को
-शायद खोज लू उसमे छूट चुका घर उसका
अपना


सब अदृश्य है
-छिपा हुआ
राख की इक झीनी सी, लेकिन ठोस परत के पीछे


कांप उठता हूँ ये जानकर
बिलकुल यूं ही
जैसे अभी
कांप रहा हूँ
देखते हुए
इस राख को


तभी इस बिलकुल वीरान सी रात
ठंडी होती जा रहीं आत्मा पर
महसूस होती हैं गर्माहट
स्याही मे घुले शब्दों की


मानो जाने-पहचाने हाथो ने
ओढ़ा दी हो इक दुशाला
और जला दिया हो सामने
यादो का अलाव


अचानक स्मृति में से
न जाने कहाँ चले जाता है
वो नंगा फ़कीर
अपने उस ठिठुरते जिस्म के साथ
जो कांपना भूल चुका हैं


क्या उसको भी मिल जाता हैं एक ठौर
कुछ उम्मीदों का
कुछ संभावनाओं का

इन्ही सर्दियों के बीच ?

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