शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

सुनो




शब्दों में लिखा सबकुछ कई दरम्यान एक पर्दा होता है... या कई-कई परदे. एक दुसरे को ढापे-ढके हुए. पहेली के हिस्सों की मानिंद. कहानियों के उलझे हुए हिस्सों के जैसे. और तब लिखा हुआ अर्थ और उसकी  समझ की सीमा के बाहर परवाज़ खोजता है..

तुम्हे बुलाता है... लेकिन भीड़ के साथ नही.

अरे सुनो, भीड़ चाहिए होती  तो यूँ शहर में अकेला क्यों रहता.
कहो.

मेरा सारा लिखा एक आमंत्रण है. तुम्हे. इस पहेली को सुलझाने का नही... ये कोई परीक्षा नही है... इस पहेली के भीतर आने के लिए. केवल तुम्हे.

मै नही चाहता लिखा हुआ समझ लिया जाए. मेरा लिखा.

लिखते हुए मै सीक्रेट एजेंट की तरह हो जाता हूँ. चाहता हूँ कि असल अर्थ बस तुम तक पहुंचे. बाकी सब उलझ जाए. धोखा खा जाए. ये अब एक खेल जैसा हो गया है. ये सुख भी है. और यंत्रणा भी. बोथ सैडिस्ट एंड  मेसोचिस्ट.


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