बुधवार, 4 दिसंबर 2019

सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए





आसानी और तेज़ी से उतरा जा सकता है सीढ़ियों से
देर हमेशा सीढ़ियाँ चढ़ने में लगी

चढ़ते हुए
थकावट की बाट जोहती एक अजीब सी तेज़ी में
मैं अक्सर भूल जाता कि पहुंचना कहां था

तीसरी मंजिल पहुंच कर
चौथी पहुंच जाने का भ्रम होता
कभी-कभी तो
डोरबेल से आती
अपनी धड़कन जैसी आवाज़

ऊपर जाते हुए
अक्सर कुछ भ्रम सच निकल जाते
और मैं मानने लगता
सच को भी
एक सर्वमान्य भ्रम

सच पूछो तो ऐसा मान लेना
खुद में एक अलौकिक अनुभव लगता
जब तक वापस नीचे आते हुए
कुछ बौनी लगने लगती
अपनी ही परछाईं। 
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सीढ़ी उतरते हुए भी जिया जा रहा होता है वही जीवन
जो जिया जा रहा होता है
कुछ भी और करते वक़्त

कुछ भी करते वक़्त
हाथो में होना चाहिए विश्वास
पैरो में संयम
और सीने में किसी अनजान ठोकर से जूझ लेने का जीवट

फिर भी 
जो होना चाहिए 
वो होता है कितना कम
जीवन मे बने रहते सोपानक्रम

तय रहती चीज़ों की एक मुख्तसर जगह
कि बना रहे जीवन मे नियंत्रण का भ्रम

मै देता रहा अपने हर भ्रम को
सच होने का आभास
मेरे सारे भ्रम
मेरे सच के अहसानमंद रहे

एक रोज़
उन्हें इसी एहसान के बोझ तले
टूट जाना था ।
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ऊपर-नीचे का द्वैत
एक ही परिभाषा के दो सिरे है
और सतह इतनी चिकनी
कि तर्क फ़िसल ही जाते हैं

हम उतरे
चढ़े
गिर जाए
उठ खड़े हों
या गिरते ही रहें

ये एक थका देने वाला निरर्थक उपक्रम है

मैं एक गीत गुनगुनाता हूँ
एक कविता सुनाता हूँ
एक पंछी बन जाता हूँ

तभी लौटती है पुरानी दुविधा
कि स्वप्न से दुःस्वप्न में लौटकर
चुपचाप ले सकता हूँ 
इन सीढ़ियों से विदा!

क्या सच में इन सीढ़ियों से होकर
मुझे घर ही जाना है?

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह .... लाजवाब
    नए बिम्ब और नवीन सोच से उपजी कमाल की रचना ...
    बहुत बधाई नील को ...

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