चिट्ठियां खो जाने से डरता हूँ मैं
कि कहीं वो खो गयी अगर
लिखने के बाद
डाकघर पहुँचने से पहले
या मेरे डाकघर से
तुम्हारे डाकघर तक पहुंचने के बीच
या अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में
एक उदास और थके हुए
डाकिये की लापरवाही से
-------------------------------------------
खो जाने के डर से
मैंने लिखी कम चिट्ठियाँ
तफसील से लिखें उनपर पते
पोस्टकार्ड पर किया कम ही भरोसा
और अंतर्देशीय को रजिस्टर्ड डाक से भेजा
लेकिन तैयारियों की अपनी सीमा है
और दुर्घटनाओं की अपनी स्वायत्ता
और फिर चिट्ठियाँ तो खो सकती हैं
ठीक पते पर पहुंच जाने के बाद भी.
---------------------------------------------
कुछ डर कभी तिरोहित नही होते
केवल भूमिगत हो जाते है
खोई हुई चिट्ठी में खो जाता था
'प्रिय तुम'
प्रिय खोजना दुष्कर था
तुमको खोजना असंभव
खोई हुई चिट्ठी में खो जाता था
आखिरी में आने वाला
'तुम्हारा मैं'
जबकि तुम्हारा कुछ भी खोने का हक़
मेरे पास नही था
प्रिय तुम
और तुम्हारे मैं
के बीच
जो कुछ था
उसने खोने की कहानी
एक आम दिन लिखी गयी
एक साधारण चिट्ठी के खो जाने जैसी ही थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें