शुक्रवार, 28 जून 2013

चलो किसी रोज़



चलो किसी रोज़
उन लफ्ज़ो के मानी खोजे
जो चुप्पी के अंधेरो मे
-अनजाने के डर से-
सन्नाटो की दीवारों से यू चिपके कुछ
कि ज़हन में बुलाने पर वापस
अब वो लफ्ज़ नहीं
घिसटते-चलते
कुछ दीवारे आती हैं

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चलो किसी रोज़
इतनी कही-अनकही बातो
और पर्दा-बेपर्दा जज्बातों
के बीच पल रहे
अपने अपने डर से पूछे
उसके होने के मानी

कि
आज और कल के उलझाव में
ऐसा क्या हैं
जो रिश्तो की गांठो को कसने वाले हाथ
उधेड़ने लगते हैं यादों से बुने स्वेटर

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चलो किसी रोज़
रो-हँस कर
बहा दे इतना समंदर
कि पूरी ज़िन्दगी में
कभी नमक कम न हो.



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