गुरुवार, 11 जुलाई 2013

'काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से'

"..उपसंहार......"
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उसका पहला पन्ना पलटते हुए कोने पर टंगे एक थोड़े विस्मृत लेकिन जाने-पहचाने  शब्द को देखकर पूछा था उसने कि इसका मतलब क्या होता है? ...."शुरुआत??????"

इस भोले से प्रश्न पर अंतर्मन की पहली अभिव्यक्ति एक सहज मुस्कान के रूप मे थी. किल्लोल की परिधियो को छूती मुस्कान. मुस्कान - जो उसके होने की प्रतिलिपि थी. (वैसे भोलापन उस प्रश्न में था या उसका माध्यम बनी आवाज़ में , उसकी नासमझी में या उस स्निग्धता में जो उन अनाम पलों में अपना एक अलग वातावरण-कवच बना लेती थी - उसे इस लम्बे अंतराल के बाद याद नही. हाँ. लंबा अंतराल...).

-"नहीं, conclusion..." बोलने के बाद उसने आत्मसंवाद सुना  --"अंत जैसा कुछ. ....निष्कर्ष.".

एक प्रश्न और एक उत्तर के बीच एक महाकाव्य के नाटकीय मंचन के सुलगते चरम क्षणों में से कुछ की राख खारी नमी लिए हुए वातावरण और ढलती शाम की उदासी में हवा से घुलने-मिलने की कोशिशे करने लगी.

"यज्ञ की राख का यूं उड़ना तो अपशकुन होता है ना...!!!"... -क्षितिज पर बचे कुछ काले बादलो को देखते हुए उसने सोचा था शायद. 

उपसंहार की प्रतिछाया में शुरू हुए उपन्यास की आखिरी पंक्ति आ पहुँची था. अनचाहे उपसंहार तक पहुचने का एहसास ......इक दर्द जैसा कुछ ....पहचाना सा लगता हैं. उस दर्द के साथ अंतिम शब्दों लग जाते हैं...

.... "कवि का धर्मं मनुष्य की आत्मा को बचाना नही, वरन उसे बचाने योग्य बनाना है... ..."
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'...उपसंहार लिखते हुए कतराता हूँ, संहार की बू आती हैं...'^


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सबसे पहले तुम अपने प्रेम से मुंह मोड़ोगे 
और अंत में अपनी आत्मा से.
इस पहले आत्मघाती कदम और उस दुखद परिणति के बीच 
एक लंबा शीत यातनाकाल होगा. 

Love is the only saviour.
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'....मेरी देह से आग निकाल लो, तुम्हारा दिल बहुत ठंडा है....'*


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उसका ईश्वर खंडित हो चुका था. या वो मूर्ती जिसे वो अदना सा बुतपरस्त ईश्वर समझ बैठा था. .. अब खंडित थी. 
पराजित ईश्वर असहनीय था.
(मानो जीवन ना हो- मल्लयुद्ध हो. ....बुतपरस्तो की भी सनक ना कुछ अजब ही होती हैं..!!)

"-अबबबबबबबब ??!!????"
"-या तो बुतपरस्ती छोड़ दे....
......या पूरा काफिर हो जा.."

"-क्या मंदिर की संभावना होगी फिर कभी...??"
"-सवाल मंदिर या मूर्ती का नहीं - ईश्वर का हैं....      और वही अकेली संभावना हैं.

"-वो ये संभावना पहचान लेगा...?"
"-सवाल नामाकूल हैं- और बेमतलब. जीवन रुकता नही. प्रेम-ईश्वर-कविता जड़ता में नही.....
.......सब गतिशील रहेगा. चैतन्य. जीवन के साथ....
.... रुकेगा नही. 
किसी बुतपरस्त के लिए तो कभी भी नही..."

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आशा में कहीं इक प्रार्थना होती हैं और निराशा के गहरे में उपहास. उपर्युक्त लेख तीसरी संभावना की ओर इंगित करता हैं. भारतीय राजनीति के तीसरे मोर्चे की तरह !!! 

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बक रहा हूँ जूनून में क्या-क्या कुछ 
कुछ ना समझे खुदा करे कोई 

__________________________ग़ालिब 

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'^ * कुमार अनुपम और गीत चतुर्वेदी की कविता की एक पंक्ति.


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