रविवार, 27 अक्टूबर 2013

अनलिखी डायरी से. (मै डायरी नही लिखता).




रात का एक पहर है .... और उस पर अँधेरे की सख्त पहरेदारी. फिर भी कही से ये पहर निकला जा रहा हैं. रिस रहा है धीरे धीरे.
और उतरता जा रहा है इक काग़ज़ पर. मुझसे होकर.

अभी अभी इस डायरी पर पहला अक्षर लिखा हैं  'सूरदास'.

बिलकुल यूं ही जैसे अरसा पहले एक डायरी पर 'कृष्ण' लिखा था.
(फिर आज तक उस पर कुछ नहीं लिखा).

यूं ही.

अभी अचानक एक रिश्ता लगा दोनों में. एक रिश्ता- एक सम्बन्ध समझ आया. कितना कुछ कितनी बाद में समझ आता हैं - होता हमेशा से है - बस समझ बाद में आता हैं.
समझ के साथ बहुत कुछ और भी आता हैं- संताप, दुःख, पछतावा, प्रेम, आमंत्रण, अवसाद, अकेलापन, धुआं. कविता. .... और देर से आने वाली समझ के साथी-सहोदर समझ से भी ज्यादा गुस्से में होते हैं. उनको अपने अस्त-व्यस्त कमरे में बैठने का आमंत्रण देता हूँ मैं इतनी रात गए मेहमानों के आने से उपजी खीज के साथ.
खीज बहुत थोड़ी देर टिकती हैं क्योकि समझदार लेखक को अचानक याद आता हैं की ये सब अपने घर ही तो लौटे हैं... इस कमरे के भीतर रहने वाला कमरा इनका ही तो घर हैं.
अपने घर वापस आये लोगो से यूं नहीं पुछा करते (बताया न लेखक समझदार हैं!) ...वरना पूछता - "आज कैसे??"

गैर-ज़रूरी चाय-पानी और उससे भी ज्यादा गैर-ज़रूरी बातें लेकर मै वापस कमरे में आया ही था कि देखा कमरा खाली हैं. दरवाज़े से तो कोई नहीं गया.
मैंने सोचा ही नहीं की कमरे के अंदर लौट कर आया कमरा भी तो खाली था. वो सब वही चले गए होंगे आँखों की नज़र से बचके.
वैसे भी उस कमरे और उसके खालीपन के बारे मे कौन सोचता हैं.

सोचने के लिए मोदी और राहुल हैं, प्याज के बढ़ते दाम हैं, सेमेस्टर एग्जाम और असाइनमेंट हैं(बाप रे, माँ रे (लेखक एक भोला और सुसंस्कृत बच्चा हैं जिसे अक्सर माँ-बाप की याद सताती हैं!!),  और क्रिकेट सीरीज में ऑस्ट्रेलिया से पिट रही अपनी टीम हैं.
तो कमरों और उनके खाली-पन को भूल सोचने लायक चीजों के साथ मैं अपने बिस्तर की और बढ़ता हूँ तो देखता हूँ की कविता सिरहाने ही बैठी हैं.
सब चले गए तो ये यहाँ क्यों?
....(ये हमेशा यूं ही रहेगी... साथ.. चुप... सबके चले जाने के बाद भी ... अभी लेखक को ये आगे समझ आएगा..ज़िन्दगी में).

खैर, उसको मैं वही रहने देता हूँ और चाय-पानी को गैर-ज़रूरी से अचानक ज़रूरी में बदलता पाता हूँ. तभी ध्यान आया कि तश्तरी में गैर ज़रूरी बाते भी तो थी ..इनका क्या किया जाए. यूं तो नही छोड़ सकते.

सोचता हूँ थोड़ी देर. फिर पाता हूँ खुद को बैठा इस स्क्रीन के सामने जहाँ बातो को अब करीने से लगा रहा हूँ.
हाँ... वहीँ बातें.... गैर ज़रूरी बातें.

____________________________________________________ 1:30 am

इतना लिखा ही है अभी कि सिगरेट बुझ गयी हैं. (अच्छी सी सिगरेट हैं - इसकी राख दूसरीयों की तरह अधजली लकड़ी जैसे ढोस नही दिखती, भरभरा कर गिरती रहती हैं राख की तरह. ठोस राख बहुत झूठी लगती हैं. बहुत. असहनीय. बदसूरत).
बुझे हुए सिरे की गोलाई के भीतर अब कोई सुलगन नहीं हैं- कोई चिंगारी नहीं- काफी अन्दर तक अब केवल राख ही हैं.. कितना कुछ जलता रहा..राख में बदलता रहा.. भीतर ...पता ही नहीं चला... पता चला तब तक बची थी केवल राख. इसके लिए...अभी इस क्षण..एक अपनापन सा लगता हैं... ... जीवन....कुछ पल.... एक समझ- जो शब्दों की मोहताज नहीं.

बहरहाल इसको फिर से सुलगाया जा सकता हैं - बशर्ते अभी सोने का इरादा ना हो और मालूम हो की सिगरेट में अब भी बहुत कुछ हैं. शेष. ....
मै बिना पीछे मुड़े ही अपना नीला पारदर्शी लाइटर टटोलता हूँ. पीछे मुड़कर देखना बहुत कठिन लगता है कई बार.
अभी तो बहुत जागना है मुझे. और बहुत कुछ रह गया है. ...शेष. ..
याद करना.... लिखना... जीना..

____________________________________________________1:44 am

लगता है ये रात बहुत खिंच जाएगी. काग़ज़.., ..कलम, ..सिगरेट ...किताब के बहाने. अरे! ज़िन्दगी लिखना तो भूल ही गया. लेकिन ठीक ही है... ज़िन्दगी लिखूंगा तो कितना कुछ और लिखना होगा. इतिहास, प्रेम, उजास, गर्माहट, शून्य,.. ... और ना जाने क्या-क्या. ..
और फिर ना जाने कितने काग़ज़ यू हीं स्याह हो जायेंगे ..और स्याही ना जाने कब काग़ज़ पर शब्द की जगह एक फैलते दाग़ की तरह दर्ज होने लगेगी. लिखते हुए ही दुःस्वप्न सा लगता हैं. दुःस्वप्न...-जागे में ही ..... नहीं भाई... ई न चोलबे.
तो अब सोते हैं.

शुभरात्री!! (अजब मेल है शब्दों का... अंग्रेजी का एक शब्द -oxymoron ध्यान आ गया.
 :p

_________________________________________________2:08 am

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें