माँ को व्यवस्थित चीज़े पसंद है. अभी शाम को बाहर चहलकदमी के लिए गया और वापस आया तो पाया की निर्मल वर्मा का उपन्यास कमरे के दूसरे कोने में किताबो की रेक में रखा जा चुका है. उसका बुक-मार्क कलम वाले डिब्बे में सलीके से खोस दिया गया है. एक रजिस्टर जिसे मै खुला छोड़कर गया था उसे बंद करके सामने मेज पर ही दीवार के सहारे खड़ा कर दिया गया है. संक्षेप में - सब कुछ व्यवस्थित सा हो गया है.
लेकिन मेरी कलम जिससे मै लिख रहा था - एक बड़ी साधारण सी कलम थी कि बस लिखकर ख़त्म कर भूल जाऊंगा- कहीं दिख नहीं रही. वहीँ, खुली हुई रजिस्टर पर ही रखी थी और उसकी रोशनाई कुछ बैंगनी सी थी. उससे लिख कर अचानक अपनी लिखावट के प्रति प्रेम उपज रहा था. (मेरे जैसे आत्ममुग्ध व्यक्ति के लिए भी अपनी लिखावट से प्रेम विरल है. लिखावट के प्रति इस विरल प्रेम का एक कारण मेरे शिक्षक है जिन्होंने ना जाने कितनी मरतबा मेरी लिखावट को लेकर मेरा सार्वजनिक अभिनन्दन किया है और इंक पेन से ले कर जैल पेन तक के इस्तेमाल में मेरा एक समान कबीरपंथी भाव देख कर अपने बाल नोचे हैं. गालो पर पड़ने वाली हथेलियों की छाप और हथेलियों पर छड़ी के निशाँ सरीखी यादो को मैंने अपने बड़प्पन में भुला दिया है.) बहरहाल अब तक उस कलम का केवल ढक्कन दिखा है. कोने में वो भी बड़े व्यवस्थित ढंग से रखा है. जाने क्यों ढक्कन के बिना पेन अधूरा सा हो जाता है. लगता है अब ख़त्म हो गया है. जाने कितनी ही बार ऐसा हुआ है की कई बिना ढक्कन वाले पेन के रखे होने के बाद भी कोई कलम ना होने का आभास और नयी कलम लाने की ज़रुरत महसूस हुयी है. ये अधूरेपन की त्रासदी है. जीवन की भी.
अब जब ढक्कन ही दिख रहा है तो लगता है कलम गुम हो चुकी है. गुम- ये शब्द बहुत पुराना है मेरी स्मृति में. इसका पहला परिचय मेरे पहले स्कूल, मेरे पहले लंच बॉक्स और पानी की बोतल और मेरे बचपन की दोस्ती की पहली स्मृति से जुड़ा है. (कितनी ही यादें चुपचाप अस्तित्व के एक कोने में बनी रहती है. अपनी उम्र जीते हुए. कुछ स्मृतियाँ- ख़ास तौर पर पहली बार की यादें तो ताउम्र एक-सी रहती है. पहला स्कूल, पहले दोस्त, पहला प्रेम. सजीव. स्पष्ट.). उस छोटे से शहर की मेरी गली के दुसरे छोर ही मेरा पहला स्कूल था. मेरा पहला स्कूल. वहां पर बने मेरे पहले दोस्त परवीन (नाम शायद प्रवीन रहा हो पर मुझे परवीन ही याद हैं) की बोली मुझसे कुछ अलग थी. (उस छोटे से शहर की एक गली में इतने तरह के लोग रहते थे और यहाँ कल न्यूज़ चैनल पर आ रही एक बहस में एक तथाकथित राष्ट्र कवि 'एक भाषा एक संस्कृति' को एक राष्ट्र का पर्याय बता रहे थे. जबकि उनके राष्ट्र की परिभाषा में उस छोटे से शहर की एक गली भी नहीं समाती). अपनी बोली में उसने मेरी पानी की बोतल के खो जाने को गुम हो जाना कहा था. बचपन की थोड़ी सी तुतलाहट और दोस्त की मम्मी से दोस्त की शिकायत करने के उल्लास से उपजे स्पेशल इफेक्ट्स के साथ. ये शब्द उसी तरह ज़ेहन में रह गया. बड़े होने की प्रक्रिया में उसके खो जाने - या गुम हो जाने के बाद भी. हाँ, गुम हो जाने के बाद भी.
पता नही क्यों लगता है खो जाने और गुम हो जाने के लिए मन ने अलग अलग खांचे बना लिए हैं. खो जाने में खोने वाले को अपनी कुछ भूल सी महसूस होती है, और ये एहसास भी की जो खो गया है अब वो मिलेगा नहीं. और वह भी एक अजीब सी बेबस स्वीकार के साथ कि जो खोया है वो भूगोल या काल के किस हिस्से में है ये मालूम है. और जिसे हाथ बढ़ाकर जब चाहे छु सकते है. कर सकने और सचमुच करने की बीच की दूरी मे खो देने के संत्रास का मर्म छिपा है.
गुम हो जाने मे एक स्वतन्त्रता की झलक हैं. गुम हो जाने वाले की, गुम कर देने वाले की और समय की. और आशा-निराशा का- चोर पुलिस वाला, इश्वर शैतान वाला खेल भी नही हैं. कोई इंतज़ार नही. कोई ग्लानी नही.
बहरहाल कलम को लेकर यही भावना है - कि कलम गुम हो चुकी है. या परवीन की तरह कहूँ तो कलम गुम गयी है. बहुत कुछ गुम जाता है व्यवस्था के स्थापन मे, बड़े होने की प्रक्रिया मे.
और बहुत कुछ हम खो देते है.
मैंने रजिस्टर फिर खोल ली है. लेकिन ये वो नही है जो मैंने बंद की थी. छोड़ कर जाने और फिर लौट कर आने के बीच बहुत कुछ बदल जाता है. कभी कभी सब कुछ. इसके झक-सफ़ेद से अध्-लिखे पन्ने पर रखी कलम के अलावा कई अनलिखे शब्द, सही विन्यास की राह तकते वाक्य और ठहरने के लिए बमुश्किल तैयार हुए कई आवारा खानाबदोश ख़याल गायब हैं. शायद ढुलक कर नीचे गिर गए होंगे जब माँ ने रजिस्टर बंद किया होगा और बुहार ले गया होगा उनको कोई मध्यवर्गीय घरो में कूड़े में पायी जाने वाली कुछ महीन धूल और कुछ-एक काग़ज़ के टुकड़ो के साथ.
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'मै उतना ही थमा हूँ, जैसे कोई प्रार्थना हूँ' ~ गीत चतुर्वेदी |