रविवार, 10 नवंबर 2019

मैं टुकड़े-टुकड़े समझ जोड़ रहा हूँ - 1











हिम्मत टुकड़े टुकड़े जोड़ कर बनती है
टूटतीं भी हिस्सो में है

मैं टूटता हूँ, भूलता हूँ
बनता हूँ, याद करता हूँ

एक पंक्ति लिखकर मै हिसाब दोहराना चाहता हूँ
एक पंक्ति लिखकर मै सब सुलझाना चाहता हूँ

एक लम्बे समय से अपनी हर कविता में
मै लिख रहा हूँ एक ही पंक्ति बार-बार

मेरा हर शब्द इतना छोटा है
कि काग़ज़ पर कविता नही
एक लकीर नज़र आती है

मैं कविता लिखता 
और लकीरो से ढकने लगता जीवन का यथार्थ 
कभी मिटाता कोई लकीर
तो जीवन से विदा ले लेती कोई पुरानी कविता

गले में अटकते
दुःस्वप्नों में भटकते
बेमतलब -
घिस चुके शब्द
एक-एक कर छोड़ रहा हूँ

मैं टुकड़े-टुकड़े समझ जोड़ रहा हूँ











मंगलवार, 5 नवंबर 2019

सूचनाओं के दौर में इतिहास पढ़ते हुए












सूचनाएं हर एक विचार पर
चढ़ रही है नागफनी की तरह
आंख बंद करने और खोलने के फर्क को
कम करती जा रही है सूचनाएं

इतिहास को पढ़ना  
जिरहबख्तरो की बनावट को नज़दीक से देखना है

इतिहास
मनोविज्ञान नही है
वो साहित्य भी नही
इतिहास तेज़ भाग रहे सिकंदर के घोड़े की लगाम है।

सूचनाओं का मोह                 
सिकंदरों को उन्माद देता है
इतिहास घोड़े को रोक कर पूछता है उससे
मुँह में पड़ी लगाम के लोहे का स्वाद*


*धूमिल की अंतिम कविता की आखिरी पंक्ति थी - लोहे का स्वाद//लोहार से मत पूछो//उस घोड़े से पूछो//जिसके मुँह में लगाम है.