बुधवार, 3 अक्तूबर 2018

मेरे सारे गुल्लक भरने से पहले ही फूट गए.



हमने जितना बोला
उतना ही लगभग अनकहा रहा
जितना लिखा
उससे ज्यादा मिटा दिया.

स्मृति में अंकित हर स्वप्न को
हमने देखा अचरज भरे अपराधबोध के साथ

स्मृति उतनी रहनी थी
जितनी ज़रूरी थी प्रतियोगी परीक्षाओ के लिए
स्वप्न उतने बचने थे
जितने से चोटिल न हो यथार्थ का अहंकार

स्वप्न और स्मृति को मिलना था
मेरे अतीत और तुम्हारे भविष्य में

अतीत का विस्तार उतना था
जहां से शुरू हो तुम्हारा होना
भविष्य उतना ही बनना था
जितना बना सके अपनी मनमानियों के बीच

मनमानियों ने जीवन को गुल्लक बना दिया
जिसमे खनकती है थोड़ी सहूलियतें और बाकी का अपराधबोध

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स्मृति, स्वप्न, अपराधबोध, सफलता, प्रेम, मनमानियाँ और सहूलियते हमारे समय में बिखरे सबसे आम शब्द थे. इन्ही शब्दों से हम खाते रहे ठोकरे, पैने करते रहे अपने अनुभव, लेते रहे सहारे, और लिखते रहे जुनूं में यूं कुछ भी.  

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