बोली गयी हर ध्वनि के
बीचो-बीच रहता
ध्वनि के विलोम का अस्तित्व
हर चुप्पी की लहर को
ऊर्जा देती
चुप्पी के विलोम की तपन
ध्वनियों के विलोम
ध्वनियों पर आश्रित नही थे
उन्हें पिरो सकने में
हमारी भाषा अक्सर नाकाम रहती
चुप्पियों के विलोम के बारे में
ये भी कहना मुमकिन नही था
कि ये दिखने में चुप्पियों जैसे थे
या विलोम के जैसे
जब सब कुछ रोज़मर्रा का पर्यायवाची हो जाना चाहता
हमारी भाषा के अनजाने विलोम
कात रहें होते
हमारे स्वप्न की सूत
हमारी भाषा के अनजाने विलोम
कात रहें होते
हमारे स्वप्न की सूत
बहुत खूब ... गहरी रचना है ...
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